मानव शरीर का बहुआयामी उपयोग है, इसके अंगोपांग अत्यंत महत्वपूर्ण और आलौकिक संरचना को दर्शाते हैं। इस शरीर में आंखों का महत्व उसके उपयोग के कारण अधिक है। आंखें दिल का आइना कहलाती हैं जो बात हम शब्दों से नहीं कह सकते वह आंखें कह देती हैं। जो हमारे भीतर में हैं, उसे बाहर झलकाने वाली ये हमारी आंखें ही होती हैं।
तभी तो लज्जाजनक बात के आते ही आंखें झुक जाती हैं, आनंदित व उल्लास भरी बातों पर ये चमकती है। करूणा, अनुकंपा व दया के भाव आते ही बरस पड़ती हैं। क्रोध में आंखें लाल हो जाती हैं, हर दिल के भावों को प्रकट करने का सशक्त माध्यम हमारी आंखें हैं। इन आंखों पर संयम रखना न केवल दोष दृष्टि से बचाव है मगर दृष्टि दोष से भी हमें बचाता है। संयम ही जीवन है और जीवन की महत्ता संयम में है।
यह बात शास्त्री नगर कॉलोनी में स्थित नवकार भवन में विराजित संयम श्रेष्ठ जैनाचार्य विजयराजजी महाराज ने सोमवार को अपने मंगल संदेश में कहीं। उन्होंने कहा आंखों से ग्रहण किए हुए भावों का असर सीधा मन पर पड़ता है, मन और आंखों का गहरा संबंध है। यह ऐसा संबंध है जो मन के चित्रपट पर चरितार्थ होता है। शरीर के समस्त अंगों में आंख ही सर्वाधिक सक्रिय रहती है क्योंकि उसकी कार्यक्षमता ऐसी है जो कान और मुंह का कार्यभार भी संभाल लेती है। यही कारण है जितना देखा जाता है उतना न सुना जाता है, न बोला जाता है।
पांचों इंद्रियों में चक्षु इंद्रीय ही आक्रामक बनकर प्रक्षेपण करती रहती है, आंखें सदा कुछ न कुछ खोजती रहती हैं। अन्वेषण, प्रेक्षण और परीक्षण में आंखों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। जितने भी अनुसंधान हो रहे हैं वे सारे आंखों के माध्यम से हो रहे हैं। संत दर्शन, सत साहित्य का पठन तथा दुखियों के दर्द का संवेदन करना ही आंखों का सदुपयोग है। दूसरों के दोष देखने में लगी आंखें दूसरों का पतन कर पाए यह संभव नहीं, मगर अपना पतन तो निश्चित कर लेती है। अपना पतन न हो इसके लिए भी आंखों का संयम आवश्यक है।
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