भोपालियत असल में इंसानियत का ही एक उजला रूप; साफ़, शफ़्फ़ाफ़, बेदाग़, यह एक इंसानी किरदार का नाम

(राजकुमार केसवानी, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार) भोपालियत असल में इंसानियत का ही एक उजला रूप है। साफ़, शफ़्फ़ाफ़, बेदाग़, यह एक इंसानी किरदार का नाम है। भोपालियत कुछ ख़ास किस्म के कपड़े, खास किस्म के ख़ानों से जुड़ी चीज़ नहीं है। मतलब यूं कि इसका मस्कन किसी पांच मंज़िला इमारत में नहीं, इंसान के दिल में है।

स वाल पेश आया है- भोपालियत पर कोविड का असर? अब इसका क्या जवाब दूं? ज़माने बदल गए, सदियां बदल गईं, हुकूमतें बदल गईं, नस्लें बदल गईं, शक्लें बदल गईं और अल्लाह जाने चा-चा बदल गिया। इन सबका कुछ असर भोपालियत पर हुआ क्या? अरे हैज़े और प्लेग जैसी ज़हरीली बीमारियां आईं, अमरीकी कारबाईड ने हवाओं में ज़हर घोलकर घर-घर तक फैला दिया। हज़ारों बेगुनाह मारे गए। ज़ारों-क़तार आंसू बहे। सब हुआ, इस सब के बाद भी भोपालियत का रंग सांवला पड़ा क्या? अरे जब तब नहीं हुआ तो अब ये कोविड-कोरोना क्या बिगाड़ लेगा?
सई हे, इन दिनों ये करम जला दोग़ले रंग और दोग़ले नाम वाला कोविड-कोरोना बिना दुआ-सलाम के ई घरों में घुसा चला आ रिया है। सड़कों पे शम्मू बदमाश की तरियों लेरा के घूम रिया है, लेकिन क्या हुआ ? जब शम्मू जेसा बदमाश नी रिया तो ये कोरोना किस खेत की मूली है। यह झाड़ू फिरा किसी दिन गरम गड्डे में दफ़्न हुआ ना मिले तो फिर मिझे बताना।
इस सारी बात को समझने के लिए ये भोत ज़रूरी है कि पेले आप इस बात को समझ लें कि ये भोपालियत चीज़ क्या है। भोपालियत असल में इंसानियत का ही एक उजला रूप है। साफ़, शफ़्फ़ाफ़, बेदाग़, यह एक इंसानी किरदार का नाम है। भोपालियत कुछ ख़ास किस्म के कपड़े, खास किस्म के ख़ानों से जुड़ी चीज़ नहीं है। मतलब यूं कि इसका मस्कन किसी पांच मंज़िला इमारत में नहीं, इंसान के दिल में है।

यह एक ख़ास किस्म का तर्ज़-ए-अमल है, तर्ज़-ए-ज़िंदगी है जिसमें हुशियारी कम और जज़्बात ज़्यादा हैं। गर्म हवाओं को सर्द अहसास में तब्दील कर देने वाले जज़्बात, यूं कहना भी बेजा न होगा कि मुश्किलों को गुदगुदा कर हंसने पर आमादा कर देने वाले हुनर का नाम है भोपालियत। पतझड़ के मौसम में राग बसंत बहार गाने का हौसला रखने वाली भोपाली कौम के किरदार का नाम है भोपालियत।
अब यूं भी नहीं कि कोरोना के कहर से भोपाल या उसके किरदार पर कोई असर ही न हुआ हो, हुआ है ख़ां भाई मियां, भोत हुआ है। इन आंखों ने लाॅकडाउन में वह मंज़र भी देख लिया कि बेसाख़्ता ही साबिर ज़फ़र का शेर याद आने लगा कि–
खुली हैं खिड़कियां हर घर की, लेकिन गली में झांकता कोई नहीं है
कुछ दोस्तों से फ़ोन पर राब्ता हुआ तो उधर से जवाब आया – ‘ये (फलाना-फ़लाना) कोरोना ज़रा कुछ ज़्यादा ही फेला रिया हे. साला भोत कर्रा साबित हो रिया हेगा, लेकिन ख़ां भाई मियां, किते दिन? जिस दिन हाथ आ गिया लोग पछीट-पछीट के मारेंगे। वेस्कीन (वेक्सीन) भी बन ई रई हे, फिर क्या।’
इसे कहते हैं भोपाली जज़्बा। इसी जज़्बे का कुल जमा नाम हुआ – भोपालियत। कोविड-कोरोना आते-जाते रहेंगे, लेकिन यह हौसला, यह जज़्बा, यह किरदार कभी ख़त्म न होगा। इस शहर के चहचहे और कहकहे यूं लौटेंगे कि ज़माना मिसाल देगा। सो भोपाल ज़िंदाबाद, भोपालियत ज़िंदाबाद।



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